Sunday, 2 September 2018

कान्हा के जन्मदिन पर पढ़िए उनकी स्टोरी, रोम-रोम हो जाएगा पावन



हाथी घोड़ा पाल की जय कन्हैया लाल की... आज कान्हा के जन्मदिन की धूम पूरे देश में मची हुई. हर गली, मोहल्ले, चौराहे पर कान्हा के जन्मदिन को अपने ढंग से मनाया जा रहा है. मंदिरों में झंकियां सज चुकी हैं. कान्हा के जन्मदिन की तैयारियां कई दिनों पहले से चल रही थी.  नटखट कन्हैया के बारे में कई कहानियां सुनी और देखी होंगी. मन हो तो इसे भी पढ़ लीजिएगा.

लोगों का ऐसा मानना है कि कान्हा के जन्म की कहानी सुनने से भक्तों के कष्ट कम होते हैं... सुन तो नहीं सकते, लेकिन हां पढ़ने का मन हो तो पढ़ लीजिएगा.

कान्हा भगवान विष्णु के 8 वें अवतार हैं. ये बात तो सबको पता होगी, फिर भी लिख देती हूं. कान्हा के जन्म की बात करें तो बड़े संकटों के बाद वह इस दुनिया में आए, लेकिन जब आए तो स्वैग से सभी ने उनका स्वागत किया. कान्हा का खौफ उनके जन्म से पहले ही मामा कंस को था, इसलिए मामा कंस ने अपनी बहन देवकी और बहनोई वसुदेव को काल कोठरी में डर की वजह से बंद कर दिया, लेकिन होनी को कौन टाल सकता है.

भादो मास की अष्टमी की घनघोर काली रात में रोहिणी नक्षत्र में लडु गोपाल ने आंखें खोलीं. उसके बाद वसुदेव कान्हा को अपने बेस्ट फ्रेंड नंद के घर यमुना को पार कर छोड़ आए. उन्होंने कान्हा को यशोदा के साथ सुला दिया और कन्या को लेकर मथुरा आ गए.

मामा कंस को जैसे ही कारागार से बच्चे की रोने की आवाज सुनी. वह वहां पहुंच गया और कन्या को छीनकर पटक देना चाहा, लेकिन वह कन्या आकाश में उड़ गई और कहा- 'अरे मूर्ख, तुझे मारनेवाला तो वृंदावन जा पहुंचा है. वह जल्द ही तेरे पापों का दंड देगा. मेरा नाम वैष्णवी है और मैं उसी जगद्गुरु विष्णु की माया हूं.' इतना कहकर वह गायब हो गईं.

ये जानने के बाद कान्हा को मारने के लिए मामा कंस ने कई कोशिशें की, लेकिन सारी प्लानिंग बार-बार फेल हो गईं. कान्हा को मारने के लिए मामा कंस ने पूतना, केशी, अरिष्ट नामक, काल नामक जैसे दैत्यों को भेजा, लेकिन मुरली बज्जैया श्याम सलोने का कुछ नहीं बिगाड़ सके.

जब सारे प्लान फेल हो गए तो मामा कंस ने कान्हा और बलराम को मथुरा बुलाया. उनके वहां पहुंचने पर कंस ने पहलवान चाणुर और मुष्टिक के साथ मल्ल युद्ध की घोषणा की. कान्हा और बलराम ने दोनों को ठिकाने लगा दिया. उसके बाद कंस के भाई केशी का संहार किया. सबसे आखिर में कंस की बारी थी तो रेडी बैठे थे मरने के लिए. कान्हा ने मामा कंस का वध किया.

कंस के मरने के बाद सभी देवताओं ने आकाश से दोनों पर फूलों की वर्षा की. उसके बाद कृष्ण ने अपने माता-पिता को कारागार से मुक्त किया और उग्रसेन को मथुरा की गद्दी सौंप दी. बाकी तो सभी को पता है आगे क्या हुआ...

तो बोलो बंसी बजैय्या की जय...

Thursday, 16 August 2018

एक ‘अटल युग’ का अंत…



मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं, लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं... आपके लौटकर आने का इंतजार हमेशा रहेगा... अटल बिहारी वाजपेयी जी हम खुशनसीब हैं, जो हमने आपको सुना और देखा, जिस उम्र में बच्चे खेल में बिजी रहते हैं, उस उम्र में मैंने आपको पढ़ा और सुना. ज्यादा समझ ना होते हुए भी आपके भाषण को सुनती और कविताएं पढ़ती थी. बचपन में ही सोच लिया था, पहला वोट आपको ही करना है, लेकिन जब तक इस लायक हुए, तब तक काफी देर हो चुकी थी. ंमैंने हमेशा बीजेपी को आपके नाम से जाना है ना कि कमल से.

भारतीय राजनीति का ध्रुव तारा माने जाने वाले अटल जी के इरादे बुलंद थे, जिसके बलबूते पर उन्होंने देश की राजनीति में नए आयाम स्थापित किए और देश को ऊंचाइयों तक पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. आज शाम पांच बजकर पांच मिनट पर दिल्ली के एम्स में अटल बिहारी वाजपेयी ने 93 साल की उम्र में अंतिम सांस ली.

इन सांसों को थमने के लिए भी काफी मशक्कत करनी पड़ी, क्योंकि अटल जी कभी हार मानने वालों में से नहीं थे. वे अटल थे, अटल हैं और हमेशा अटल रहेंगे. राजनीति में बदलाव की बयार को लाने वाले अटल जी कई सालों से इससे दूर थे. साल 2005 में मुंबई के शिवाजी पार्क में भाजपा की रजत जयंती समारोह के दौरान एक रैली को संबोधित करते हुए अटल जी ने घोषणा की कि वह चुनावी राजनीति से रिटायर होंगे.

देश को स्वस्थ लोकतंत्र देने वाले अटल जी सालों से कई बीमारियों से जूझ रहे थे. अटल जी जब तक स्वस्थ थे, देश की राजनीति भी फलफूल रही थी. अटल जी की सभाओं में दिए गए भाषण आज भी लोगों को सिखाते हैं कि राजनीति अभद्र होने का नाम नहीं है. दोस्ताना अंदाज से भी विरोधियों की आलोचना की जा सकती है.

वह तीन बार देश के पीएम बने, सबसे चहेते... आम से लेकर खास, हर दिल अजीज, लोगों को समझने वाले... प्रधानमंत्री... मेरे भी. पांच साल सरकार चलाने के अलावा वे दो बार 13 दिन और 13 महीने तक देश की सेवा की. दोनों बार उन्हें अविश्वास प्रस्ताव के दौरान विपक्ष के तीखे हमले झेलने पड़े. फिर भी वह अटल इरादों के साथ आगे बढ़ते रहे.

उनके जाने से कलयुग के भव्य अटल युग का अंत हो गया है. एक महान जननायक, कवि, लेखक, वक्ता और भारत रत्न श्री अटलजी को विनम्र श्रद्धांजलि...
शब्दों को विराम देते हुए अटल जी की लिखी अपनी फेवरेट कविता को सभी के साथ शेयर कर रही हूं.

कौरव कौन, कौन पांडवटेढ़ा सवाल है...
दोनों ओर शकुनि का फैला कूटजाल है...
धर्मराज ने छोड़ी नहीं जुए की लत है...
हर पंचायत में पांचाली अपमानित है...
बिना कृष्ण के आज महाभारत होना है...
कोई राजा बने, रंक को तो रोना है...






Thursday, 19 July 2018

भगवा से बैंगनी हुआ भारतीय रुपया, अगस्त से होगा सबकी जेब में



बहुत दिन बाद कुछ लिखने जा रही हूं, कोई टॉपिक ही नहीं मिल रहा था तो ट्विटर स्क्रोल कर रही थी. फाइनली मुझे कुछ मिला. एएनआई का ताजातरीन ट्वीट. इस ट्वीट में नए-नवेले 100 के नोट की तस्वीर शेयर की है. 
जल्द ही आरबीआई यानी रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया 100 का नया नोट मार्केट में उतारने वाली है.  इस तस्वीर में आगे और पीछे माने दोनों तरफ से 'नोट दिखाई' की गई है. नोटबंदी के बाद 10, 50, 200, 500 और 2000 के नए नोट जारी करने के बाद 100 का नया नोट जल्द ही आपकी जेब में होगा.
नोट का कलर देखकर तो बस मुंह से एक ही बात निकली, भगवा से बैंगनी हुआ भारतीय रुपया. इसलिए हेडिंग यही लगाई है. वैसे तो बाकी नए नोटों के कलर ने काफी सुर्खियां बटोरीं, लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा में रहा भगवा 200 का नोट, इसलिए हेडिंग यही लगाई है.  इस नोट को रंग ही कुछ ऐसा था. इसे पीएम मोदी के भगवा मिशन से भी जोड़ा गया. कुछ लोगों की आंखों को भगवा रंग सुकून देता है तो कुछ को चुभता है. खैर, जो भी हो चर्चा तो बटोर ही ली. 
अब नए-नवेले नोट की बात करते हैं. पुराने वाले 100 के नोट से थोड़ा छोटा होगा. नोट के आगे के हिस्से में अंकों में 100 रुपए लिखा होगा और गांधी जी की तस्वीर के लेफ्ट में हिंदी की गिनती में 100 लिखा होगा. गवर्नर उर्जित पटेल के साइन और राइट साइड में भारत की शान अशोक स्तंभ की तस्वीर होगी और बाकी वही सब लिखा हुआ है.
नोट के पिछले हिस्से की बात करें तो भारतीय सांस्कृतिक विरासत को समेटे हुए रानी की वाव की तस्वीर बनी हुई है. साथ ही स्वच्छ भारत का सुनहरा सपना भी अपनी जगह लिए हुए है.
ये नोट अगस्त 2018 से मार्केट में हर तरफ नजर आएगा. अगर आपकोनये चिंता सता रही है कि नए वाले नोट के आ जाने से पुराने की वैल्यू कम हो जाएगी तो ऐसा बिलकुल नहीं होगा. आप बेझिझक पूरी शान से नोट को जेब में रख सकते हैं, क्योंकि आरबीआई ने साफतौर पर ऐलान किया है कि नए नोट आने के बाद पुराने 100 के नोट का चलन रहेगा, तो फिर थोड़ा इंतजार का मजा लीजिए. अगस्त में बहन आपकी कलाई में प्यार बांधे तो बाकी रंगों के नोटों के साथ इस रंग को भी शामिल कर लीजिएगा. मतलब बहना का पर्स कलरफुल हो जाएगा.
अब बात करते हैं रानी की वाव की ऐतिहासिक होने के साथ खुद में काफी कुछ समेटे है. यह गुजरात के पाटन जिले में है. गुजरात है तो मोदी कनेक्शन ना ढूंढने लग जाइयेगा. राजनीति नहीं चलेगी.
रानी की वाव को महारानी उदयामती ने अपने पति राजा भीमदेव के प्रेम से भरी स्मृति के रूप में बनवाया था. यह सीढ़ीदार कुआं है. ये सात मंजिला है. वाव के खंभों पर सोलंकी वंश और उनके पराक्रम की कहानी सुनाते हैं. रानी की वाव को यूनेस्को ने विश्व विरासत स्थल में सम्मिलित कर चुकी है.


https://twitter.com/ANI/status/1019881976986324992

Thursday, 10 May 2018

भारत तो बंद था लेकिन बाकी सब धड़ल्ले से चालू था



late post 
भारत बंद दो शब्द जिनकी वजह से ना जाने कितने लोगों को मानसिक और शारीरिक पीड़ा झेलनी पड़ी. एक समुदाय जो अपनी बात मनवाने के लिए सड़कों पर हथियारों के साथ उतर आया. वहीं दूसरे ने भी वही तरीका अपनाया. उन्हें तो बस अपनी बात मनवानी थी, चाहे तरीका कैसा और इरादे कैसे भी हो.
भारत बंद के दौरान एक बात बड़ी ही दिलचस्प थी. भारत तो बंद था, लेकिन बाकी सब धड़ल्ले से चालू था. मेरा मतलब लड़ाई-झगड़े, लोगों को मारना, आग लगाना, बाकी जनता को परेशान करना आदि, सब चालू था. सड़कें वीरान, दुकान बंद करवाने और गाड़ियों को जलाने में भारत बंद नहीं था.
बाबा साहेब की उसूलों को तांक पर रखकर निकल लिए आरक्षण का घंटा बजाने. बात करें पहले भारत बंद कि तो ये बंद दलितों ने 2 अप्रैल को आरक्षण के लिए किया था. इस बंद में हजारों लोग सड़कों पर घूम रहे थे.
सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी एक्ट में बदलाव के खिलाफ देशभर को दलित संगठनों ने सड़कों पर उतर कर कोर्ट के फैसले का विरोध करने का फैसला किया था. बिना ये सोचे की बंद की वजह से जाने-अंजाने लोगों को दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा.
इस बंद को कई मंत्रियों ने भी सपोर्ट किया. अजीब लगता है उनके ऐसे बिहेवियर पर. उसके बाद कई लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. कई लोगों की जिदंगी तबाह हुई. जो लोग रोज कमाकर अपने परिवार का पेट पालते हैं, शायद बंद की वजह से भूखा ही सोना पड़ा हो. किसी को इलाज ना मिला कोई चाह कर भी मिल ना पाया हो लेकिन इससे इन्हें क्या लेना देना. ये फिर से मारे गए दलितों के लिए बंद की आंधी लेकर आएंगे.
  इसके बाद एक और बंद होना था 10 अप्रैल को, पूरा सोशल मीडिया इस बंद की चिंगारी को फैलाने में लगा हुआ था. समझदार लोग, बड़े-बड़े पद पर जॉब करने वाले लोग इस बंद के सपोर्ट में थे. ना जाने कितने मैसेज और पोस्ट मैने देखे, जिन्हें देखकर ये अंदाजा हो गया कि हम जितना साइंस और टेक्नोलॉजी में आगे बढ़ रहे हैं, हम सोच में उतना ही पीछे जा रहे हैं. दोनों भारत बंद में एक बात समान थी हिंसा. हमें अपनी बात मनवाने के लिए हिंसा ही करनी आती है.
10 अप्रैल को आयोजित बंद में फिर से हिंसा न फैले इसलिए गृहमंत्रालय दिशा निर्देश तो जारी कर दिए थे. लेकिन फिर भी वह इसे रोकने में नाकाम रहे. पूर्वी क्षेत्रों में हिंसा की आग में कई लोगों को झुलसना पड़ा.
उत्तर प्रदेश के कई जिलों में पुलिस और प्रशासन ने अलर्ट जारी कर धारा 144 लागू कर दी गई. वहीं मध्यप्रदेश में भी स्कूल कॉलेज की छुट्टी कर दी गई है, जबकि कई शहरों में इंटरनेट की सुविधा भी बंद कर दी गई है.
भारत बंद के दौरान देशभर में हिंसा हुई. करीब 12 लोगों को जान गंवानी पड़ी थी. लेकिन क्या फर्क पड़ता है बंद में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वालों को, लोग तो मरते रहते हैं.
दोनों भारत बंद के बाद तो ये यकीन हो गया है कि इंसानियत सिसक-सिसक कर दम तोड़ रही है.




Sunday, 29 April 2018

डिजिटलाइजेशन के जमाने मे सोशल साइट्स का बढ़ता पैमाना



वो जमाने चले गए जब हम रिजल्ट देखने के लिए साइबर कैफे पर अपनी बारी का घंटों इंतजार करते थे. आज के दौर 
में हर किसी के हाथ में इंटरनेट है और वह पलभर में रिजल्ट की सोशल साइट पर जाकर रिजल्ट देख सकता है. आज हर उम्र के लोगों में सोशल साइट्स का क्रेज है. अपनी जरूरत की चीजों के साथ पहचान बनाने का भी कारगर माध्यम है, ये सोशल साइट्स.

सोशल नेटवर्किंग साइट लोगों से जुड़ने, अपने विचारों का आदान-प्रदान करने का एक अनोखा स्टेज हैं, जहां आसानी से पहचान बना सकते है. सोशल नेटवर्किंग साइट के बिना वेब जगत की कल्पना ही नहीं की जा सकती.

फेसबुक, ट्विटर, लिंक्ड इन जैसी ना जाने कितनी साइट होंगी, जो आम लोगों में भी अपनी पकड़ मजबूत बनाए हुए है, ये सिर्फ कारपोरेट, राजनीति या किसी बड़े माध्यम तक सीमित नहीं है.

सोशल साइट्स भगवान के प्रसाद की तरह है, जो सबके लिए अवलेबल है. ये किसी के साथ भेदभाव नहीं करती, छोटा, बड़ा, अमीर, गरीब सबके साथ एक जैसी ही है.

सोशल साइट्स के नुकसान

फायदे तो हो गए अब बात करते हैं नुकसान की. यह बहुत सारी इंफॉरमेशन देता है, जिनमें से कुछ अच्छी तो कुछ फेक होती हैं. साथ ही साइबर क्राइम भी तेजी से बढ़ रहा है.

इंफॉरमेशन को अपने तरीके से लोग शेयर करते है. जैसे कि कई तस्वीरे और वीडियो जो कहीं और के किसी और के होते हैं. उन्हें अन्य लोगों से जोड़कर पेश किया जाता है.  कई बार तो इन बातों का रियलिटी से कोई मतलब नहीं होता.

कंटेंट का कोई मालिक न होने से मूल स्रोत का पता नहीं चलता और किसी का भी कंटेट चेप कर शंहशाह बन जाते हैं.
प्राइवेसी नहीं होती. फोटो या वीडियो की एडिटिंग करके भ्रम फैलाया जाता है, जिनके कारण दंगे जैसी स्थिति भी हो सकती है.

सोशल साइट्स की 2020 तक पहुंच

यह बहुत तेजी से लोगों के बीच अपनी पैठ बना रहा है. पैदा होने वाले बच्चों से लेकर 70 साल के लोग भी इस मीडियम से जुड़े हुए हैं.  यह जानकारी को एक ही जगह इकट्ठा करता है. बहुत ही आसानी से सभी न्यूज लोगों तक पहुंचाता है, जिसकी वजह से लोग इससे जुड़ते जा रहे हैं. 

2020 तक जो लोग सोशल साइट्स से नहीं जुड़े हैं वो भी जुड़ जाएंगे. खूबसूरत सी प्रोफाइस पिक के साथ इनसे जुड़ जाएंगे. सोशल साइट्स की पहुंच गांव के लोगों में भी है. 2020 तक जो इसे नहीं जानते वो भी इससे जुड़ने की कोशिश में रहेंगे. क्योंकि यह हर भाषा में हैं तो लोग इससे बिना किसी रूकावट के जुड़ रहे हैं.

Wednesday, 21 March 2018

#WorldPuppetryDay : पुराणों से हुआ कठपुतलियों का जन्म, गायब होने से पहले जान लें खास बातें



डेट और समय ठीक से याद नहीं है. लेकिन एक वर्कशाप में कुछ कठपुतलियों का शो देखा था. कठपुतलियों को देखना मुझे काफी अच्छा लगता है. बचपन में बहुक बार तो नहीं पर गिनती के 6 या 7 बार कठपुतली का नाटक देखा, जिसमें सास गुलाबो और बहू सिताबो की खटपट को दिखाया जाता था. लेकिन आज डिजिटल हो चुकी दुनिया में नाममात्र ही कठपुतली नजर आती हैं. आज 21 मार्च को world puppetry day मनाया जा रहा है.

इंटरनेट के दौर में कठपुतली या पपेट का खेल जैसे कहीं खो गया है. गलती से भी मैने इस शब्द किसी के मुंह से नहीं सुना है. एक दौर ऐसा भी था, जब कठपुतली के खेल को लोग देखने के लिए लोग कोई मौका नहीं छोड़ते थे. कठपुतलियों का खेल हमारे देश भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के हर कोने में छाया हुआ था.

आज विश्व कठपुतली दिवस पर कठपुतलियों के लुप्त होने से पहले जान लेते हैं इतिहास के बारे में.

कई कलाओं में से इस कला का जन्म भी हमारे देश से हुआ. ग्रंथों और पुराणों से इनका जन्म हुआ है. कठपुतली शब्द 
संस्कृत के 'पुत्तलिकाया 'पुत्तिकाऔर लैटिन के 'प्यूपासे मिलकर बना हैजिसका अर्थ है-छोटी गुड़िया. ऐसा माना जाता है कि दूसरी शताब्दी में लिखे तमिल महाकाव्य 'शिल्पादीकरमसे इसका जन्म हुआ. वहीं कई लोग मानते हैं कि चौथी शताब्दी में लिखे 'पाणिनीग्रंथ के पुतला-नाटक और 'नाट्यशास्त्रसे इनका जन्म हुआ.

कठपुतली कला का विस्तार पूरे देश में हुआ और यह अलग-अलग राज्यों की भाषापहनावे और लोक-संस्कृति के रंग में रंगने लगी. अंग्रेजी शासनकाल में यह कला विदेशों में भी पहुंच गई. आज यह कला इंडोनेशियाथाईलैंडजावाश्रीलंकाचीनरूसरूमानियाइंग्लैंडअमरीकाजापान में पहुंच चुकी है.

यूरोप में अनेक नाटकों की तरह ही कठपुतलियों के नाटक भी होते हैं. फ्रांस में तो इस खेल के लिए स्थायी रंगमंच भी बने हुए हैं, जहां नियमित रूप से इनके खेल खेले जाते हैं. फ्रांस में कठपुतलियों का स्टेट्स काफी हाई है, जिसकी वजह से रियल लगती हैं.  

समय के साथ इस कठपुतली कला में काफी बदलाव हुए हैं. पहले इनके प्रदर्शन में लैंप और लालटेन का इस्तेमाल होता था.आज कठपुतली कला के बड़े-बड़े थियेटर में शोज किए जाते हैं.
दुनिया भर में कठपुतली कला इन नामों से फेमस है.



भारत में कठपुतली
राजस्थान की स्ट्रिंग कठपुतलियां दुनिया भर में मशहूर हैं. इसके अलावा उड़ीसाकर्नाटक और तमिलनाडु में भी कठपुतलियों की यही कला प्रचलित है. राजस्थानी कठपुतलियों का ओवल चेहराबड़ी आंखेंधनुषाकार भौंहें और बड़े होंठ इन्हें अलग पहचान देते हैं. 

स्ट्रिंग कठपुतली
भारत में धागा कठपुतली सबसे ज्यादा मशहूर है. कठपुतली के सिरगर्दनबाजूउंगलियोंपैर जैसे हर जोड़ पर धागा बंधा होता हैजिसकी कमान कठपुतली-चलाने वाले के हाथ में होती है.

रॉड कठपुतली
इस तरह की कठपुतली के सिर और हाथ को एक रॉड से नियंत्रित किया जाता है. इसकी शुरुआत इंडोनेशिया में हुई.

कार्निवल कठपुतली
इस तरह की कठपुतली का इस्तेमाल किसी बड़े फंक्शन में किया जाता है. यह बहुत बड़ी कठपुतली होती है. आर्टिस्ट कठपुतली के अंदर जाकर इसे चलाते हैं. इसका बेहतरीन उदाहरण चीन में न्यू ईयर के मौके पर इस्तेमाल होने वाली ड्रैगन कठपुतली है.

दस्ताना (हैंड) कठपुतली
ऐसा माना जाता है कि 17वीं शताब्दी में चीन में इसका जन्म हुआ था. यह कठपुतली एक दस्ताने की तरह हाथ में फिट हो जाती है. कठपुतली का सिर कलाकार के हाथ के बीच की उंगली में और उसके हाथ अंगूठे और पहली छोटी उंगली में डाले जाते हैं.

शेडो कठपुतली
ये सबसे पुरानी शैली की कठपुतली मानी जाती है. कठपुतलियां लैदरपेपरप्लास्टिक या लकड़ी से बनाई जाती हैं. इसके शो प्रकाश व्यवस्था पर निर्भर करते हैंजिससे कठपुतली के हाव-भाव और आकार साफ तौर पर दिखाई देते हैं. इसकी शुरुआत भारत और चीन में मानी जाती है.

Sunday, 18 March 2018

नवरात्र के पहले दिन को खास बनाएगी इस संघर्षशील महिला की कहानी



आज से नवरात्र शुरू हो गए हैं. नौ दिनों तक मंदिरों में भक्तों की भीड़ रहने वाली है. पापी,चंडाली, औरतों और लड़कियों को सताने वाले लोग भी मां के दरबार में जाकर जयकारे लगाएंगे. भले ही घर पर अपनी मां और पत्नी को बेइज्जत करें. लेकिन इन नौ दिनों में हर वो चीज करेंगे, जो अंबे मां को प्रसन्न कर सके. नवरात्र के दिन बड़े ही पावन होते है. इन पावन दिनों को और भी खास बनाया है. कुछ सिंपल दिखने वाली औरतों ने जिन्होंने हर लड़ाई को जीतकर अपनी पहचान बनाई है. नवरात्र के नौ दिनों में ऐसी ही महिलाओं की बात करने वाले हैं.

नवरात्र के पहले दिन मां शैलपुत्री की पूजा की जाती है. मां का स्वरूप इस प्रकार है- सिर पर मुकुट और उसमें त्रिशूल शोभित है. इनके दाएं हाथ में त्रिशूल, बाएं हाथ में कमल सुशोभित है.

ऐसी ही एक महिला हैं, जिनके सिर पर भले ही मुकुट ना हो. लेकिन उन पर मां नर्मदा का आशीर्वाद हमेशा बना रहेगा. जिनकी आवाज एक गूंज बनकर उभरी. जब-जब नर्मदा की बात की जाती है तो मेधा पाटकर की बात जरूर होगी. आइए जानते हैं इनके जीवन का खास हिस्सा.

मेधा पाटकर को 'नर्मदा की आवाज' के रूप में जाना जाता है. मेधा ने 'सरदार सरोवर परियोजना' से प्रभावित होने वाले लगभग 37 हजार गांव के लोगों को अधिकार दिलाने की लड़ाई लड़ी.

मेधा का जन्म 1 दिसंबर 1954 को मुंबई में हुआ था. मेधा के माता-पिता सोशल वर्कर थे.
मेधा ने टाटा इंस्टी ट्यूट ऑफ सोशल साइंस से सोशल वर्क में एमए कम्पलीट किया और अपने काम में लग गईं. मुंबई से शुरू हुए सफर की पहली सीढ़ी की ओर बढ़ी. झुग्गियों में बसे लोगों की सेवा करने वाली संस्था.ओं से जुड़ गईं।

28 मार्च 2006 को मेधा ने ने नर्मदा नदी के बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाने के विरोध में भूख हड़ताल पर बैठने का फैसला किया. मेधा को पता था कि जिस मंजिल तक वह पहुंचने का रास्ता मुश्किल होने वाला है. लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. पूरा समय नर्मदा नदी पर लगाने के लिए उन्होनें अपनी पी.एच.डी की पढ़ाई तक छोड़ दी थी.

17 अप्रैल 2006 को सुप्रीम कोर्ट से नर्मदा बचाओ आंदोलन के तहत बांध पर निर्माण कार्य रोक देने की अपील को खारिज कर दिया. लेकिन उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी.

नर्मदा बचाओ आंदोलन के अलावा भी मेधा ने कई लड़ाइयां लड़ी हैं. समाज की सेवा के साथ मेधा ने राजनीति में भी एंट्री की. लेकिन राजनीति उन्हें रास ना आई. 13 जनवरी 2014 को उन्होंपने आम आदमी पार्टी में सम्मि लित होने के घोषणा की. लोकसभा चुनाव 2014 में मेधा उत्त र-पूर्व मुंबई से आम आदमी पार्टी के उम्मीीदवार के रूप में चुनाव लड़ा था.

मेधा के कार्यों के लिए पुरस्कारों से भी नवाजा गया, जो इस प्रकार हैं.
साल    पुरस्कार
1991-सही आजीविका पुरस्कार
1992- गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार
1995- बीबीसी, इंग्लैंड द्वारा सर्वश्रेष्ठ अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक प्रचारक के लिए ग्रीन रिबन अवार्ड
1999- एमनेस्टी इंटरनेशनल, जर्मनी से मानव अधिकार डिफेंडर का पुरस्कार
1999- विजील इंडिया मूवमेंट से एम.ए. थॉमस नेशनल ह्यूमन राइट्स अवार्ड
1999- बीबीसी के व्यक्ति का वर्ष
1999- दीना नाथ मंगेशकर पुरस्कार
1990- शांति के लिए कुंडल लाल पुरस्कार
2013- भीमा बाई अम्बेडकर पुरस्कार

2014- सामाजिक न्याय के लिए मदर टेरेसा पुरस्कार

मनमोहन सिंह ने दिया था सबसे लंबा बजट भाषण, ना हो यकीन तो पढ़ लो

आज वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण अपना पहला बजट पेश कर रही हैं. इससे पहले भी कई वित्त मंत्री आए और उन्होंने अपना बजट पेश किया है. लेकिन...