Friday 19 October 2018

विस्फोटक बल्लेबाज सहवाग का आज है जन्मदिन, रिकॉर्ड ने बनाया मुल्तान का सुल्तान





इंटरनेशनल क्रिकेट में धाक जमाने वाले वीरेंद्र सहवाग का आज हैप्पी बर्थडे है. 20 अक्टूबर 1978 को जन्मे वीरू ने क्रिकेट की दुनिया में कई झंडे गाड़े, जो आज भी मस्त होकर लहरा रहे हैं. भले ही सहवाग के विस्फोटक शॉट्स क्रिकेट मैदान में देखने को मिलें, लेकिन वीरू अपने ट्वीट से सबको हिट करते रहते हैं.

सहवाग ने पहला वनडे 1999 में और पहला टेस्ट मैच 2001 में खेला. क्रिकेट की दुनिया में कदम रखने के बाद सहवाग को कई नामों से बुलाया जाने लगा. वीरू के फैंस उन्हें मुल्तान का सुल्तान, नफजगढ़ का सुल्तान के नामों से बुलाते हैं. सहवाग ने अपने करियर में कई रिकॉर्ड बनाए और तोड़े हैं. वीरू ने आखिरी मैच मार्च 2013 में खेला था. 

वीरू के सदाबहार करियर पर नजर डाली जाए तो 104 टेस्ट और 251 वनडे मैच खेले. सहवाग ने टेस्ट क्रिकेट में 47.34 के औसत और 82.34 के स्ट्राइक रेट से 8586 रनों के साथ ही वनडे क्रिकेट में 35.05 की औसत और 104.33 के धमाकेदार स्ट्राइक रेट से 8273 रन जोड़े.

वैसे तो वीरू ने कई विस्फोटक रिकॉर्ड बनाए हैं. लेकिन इन रिकॉर्ड का जिक्र ना हो तो बेइमानी होगी वीरू के फैंस से.
दो तिहरे शतकों के लिए आज भी याद किया जाता है वे अकेले ऐसे भारतीय क्रिकेटर हैं, जिनके नाम यह रिकॉर्ड दर्ज है. दुनिया में केवल चार ऐसे क्रिकेटर हैं, जिन्होंने अपने करियर में दो-दो तिहरे शतक जड़े हैं.

सहवाग ने एक तिहरा शतक 28 मार्च 2004 को को पाकिस्तान के मुल्तान टेस्ट के दौरान जड़ा था, जिसने उन्हें मुल्तान का सुल्तानबना दिया था. इस तिहरे शतक में सहवाग ने 309 रनों की पारी खेली थी.

इसके अलावा 2008 में सहवाग ने जो तिहरा शतक जड़ा था, उसमें उन्होंने 319 रनों की पारी खेली थी.  2008 में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ चेन्नई के एम चिदंबरम स्टेडियम में सहवाग ने 319 रनों की पारी में 42 चौके और 5 छक्के लगाए थे.


Thursday 18 October 2018

लंकापति रावण से बड़ा विलेन कोई नहीं, लेकिन ये अच्छाइयां जरुर जाननी चाहिए




लंकापति रावण इस धरती पर लंकापति रावण से बड़ा विलेन कोई नहीं है. हमेशा से हम यही सुनते आ रहे हैं कि राम ने रावण का वध करके सत्य पर असत्य की विजय पताका लहराई. भले ही रावण ने सीता माता का अपहरण करने जैसा जघन्य अपराध किया हो लेकिन उसके जैसा महाज्ञानी कोई नहीं था. रावण के ज्ञान के आगे देवता भी नतमस्तक हो गए थे. रावण के बारे में ये खास बातें बताती हैं कि उनके जैसा महाज्ञानी पुरुष पैदा नहीं हुआ.

वेद और संस्कृत का ज्ञाता

रावण को वेद और संस्कृत का ज्ञान था. रावण ने शिवतांडव, युद्धीशा तंत्र और प्रकुठा कामधेनु जैसी कृतियों की रचना की. साम वेद के साथ बाकी तीनों वेदों का भी उसे ज्ञान था. वह पदपथ में दक्ष था. यह वेदों को पढ़नेका तरीका है.

ज्ञान का भंडार रावण

युद्ध में हारने के बाद जब रावण अपनी अंतिम सांसें ले रहे थे, तब राम ने लक्ष्मण को रावण से ज्ञान लेने  को कहा. रावण ने लक्ष्मण से कहा कि अगर आपको अपने गुरू से ज्ञान प्राप्त करना है तो हमेशा उनके चरणों में बैठना चाहिए. ऐसा आज भी हो रहा है. गुरु बिना ज्ञान अधूरा है.

स्त्री रोगविज्ञान और बाल चिकित्सा विशेषज्ञ

रावण ने स्त्री रोगविज्ञान और बाल चिकित्सा पर कई किताबें लिखी थीं. इन किताबों में 100 से अधिक बीमारियों का इला लिखा हुआ है. इन किताबों की रचना रावण ने पत्नी मंदोदरी के कहने पर की थी.

आयुर्वेद का ज्ञान

रावण को आयुर्वेद में महारत हासिल थी. उसने आयुर्वेद पर एक किताब लिखी थी. इस किताबी का नाम अर्क प्रकाश है. इसमें  आयुर्वेद से जुड़ी कई जानकारियां हैं. आज भी आँखों की बीमारी से बचाने के लिए दवाएं बनाई जा रही हैं, जो रावण के नुस्खे पर आधारित है.

संगीत का भी ज्ञान

रूद्र वीणा बजाने में रावण को कोई भी हरा नहीं सकता था. जब भी रावण का मन खिन्न होता था वह खुद को खुश करने के लिए इसे बजाता था.

रावण ने राम की मदद की

रावण ने राम की मदद युद्ध में की थी. जब श्री राम को युद्ध से पहले पुल बनाना था. तब उन्हें यज्ञ करना था लेकिन कहानी में ट्विस्ट ये था कि युद्ध तभी सफल होगा जब माता सीता यज्ञ में साथ बैठेंगी. यज्ञ को सफल बनाने के लिए रावण माँ सीता को लेकर आए थे. इसके बाद रावण ने राम को विजयी भव होने का आशीर्वाद दिया था.

कविताएं लिखने में निपुण

रावण युद्ध विद्या में पारंगत होने के साथ एक अच्छा कवि भी था. कई कविताओं और श्लोकों की रचनाएं थी. रावण ने ही शिवतांडव की रचना की थी. रावण महादेव का परम भक्त था. ने भगवान शिव को खुश करने के लिए कई रचनाओं का निर्माण किया.

रावण नहीं था दस सिर वाला

रावण को दस सिरों वाला कहा जाता है. दशहरे में भी दस सिर वाले पुतले को जलाया जाता है. लेकिन उनके दस सिर नहीं थे. रावण के अंदर दस सिर जितना दिमाग था. यही कारण था कि रावण को दशानन कहा गया. साथ ही रावण जब छोटे थे तब उनकी मां ने उन्हें 9 मोतियों वाला हार पहनाया था. उस हार में रावण के चेहरे की छाया दिखती थी.

रावण की बेटी थी सीता

रामायण भारत ही नहीं बल्कि कई अन्य देशों में भी ग्रंथ की तरह अपनाई गई है. थाइलैंड की रामायण के मुताबिक, सीता रावण की बेटी थी, जिसे एक भविष्यवाणी के बाद रावण ने जमीन में दफन कर दिया था. भविष्यवाणी में कहा गया था कि यही लड़की तेरी मौत का कारण बनेगी’. उसके बाद माता सीता जनक को मिलीं. रावण ने कभी भी देवी सीता के साथ बुरा बर्ताव नहीं किया.

ग्रह नक्षत्रों को बंदी बनाकर रखा

रावण ने इंसानों ही नहीं ग्रहों पर भी अपना आधिपत्य कर लिया था. मेघनाथ के जन्म से पहले रावण ने ग्रह नक्षत्रों को अपने हिसाब से सजा लिया था, जिससे होने वाला पुत्र अमर हो जाए. लेकिन आखिरी समय में शनि ने अपनी चाल बदल ली थी. रावण ने शनि को  अपने पास बंदी बनाकर रखा हुआ था.

Sunday 14 October 2018

मिसाइल मैन की लाइफ देती है सफलता की ऊंचाइयों को छूने की प्रेरणा




भारत के पूर्व राष्ट्रपति और मिसाइल मैन डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का आज जन्मदिन है. 15 अक्टूबर 1931 को जन्मे कलाम साहब की शख्सियत बेहद शानदार, जानदार और जबरदस्त थी, जिससे आज भी लोग मोटिवेट होते हैं. लोगों की मदद के लिए वे हमेशा तैयार रहते थे. कलाम ने अपने जीवन में कई कार्य किए.



'अग्नि' मिसाइल को उड़ान देने वाले मशहूर वैज्ञानिक कलाम साल 2002 में हमारे देश के 11 वें राष्ट्रपति बने. पांच साल पूरे होने के बाद वह शिक्षा और सार्वजनिक सेवा में लौट आए थे. 1962 में कलाम इसरो पहुंचे. कलाम ने प्रोजेक्ट डायरेक्टर रहते हुए भारत का अपना पहला स्वदेशी उपग्रह प्रक्षेपण यान एसएलवी-3 बनाया. 1980 में रोहिणी उपग्रह को पृथ्वी की कक्षा के समीप स्थापित किया गया और भारत अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष क्लब का सदस्य बन गया. कलाम ने इसके बाद स्वदेशी गाइडेड मिसाइल को डिजाइन किया.



कलाम एक मछुआरे के बेटे थे और जीवन का शुरुआती सफर में अखबार बेचते थे. मेहनत और लगन से वह देश के मशहूर वैज्ञानिक, राष्ट्रपति बने. वह हमेशा युवाओं में नया करने का जोश भरते रहे. आज भी लोग उनकी किताबों को पढ़कर जिंदगी की बारीकियों को सीख रहे हैं. उन्होंन लगभग दो दर्जन किताबें लिखी हैं.  
कलाम का जीवन सभी को प्रेरणा देते है कि कितनी भी मुश्किलें आए. लेकिन लगातार कोशिशें और संघर्ष इंसान को सफलता की ऊंचाइयों तक पहुंचा देता है.



27 जुलाई, 2015 को कलाम आईआईएम शिलॉन्ग में लेक्चर देने गए थे और इसी दौरान दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया था.

Sunday 23 September 2018

आज से शुरू हो रहे पितृपक्ष




बप्पा की विदाई के बाद पूर्वजों का धरती पर आज से आगमन हो गया है. अपने वंश का कल्याण करने के लिए पंद्रह दिन के लिए पितृ घर में विराजमान रहेंगे. घर में सुख-शांति-समृद्धि प्रदान करेंगे. आज से शुरू हो रहे पितृपक्ष के दौरान लोग अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए तर्पण कराते हैं और उनकी आत्मा की शांति की प्रार्थना करते हैं. श्राद्ध भाद्रपद शुक्लपक्ष पूर्णिमा से शुरू होकर अश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक चलते हैं. इसी दौरान पितरों को पिंडदान कराया जाता है. 
पितृपक्ष करने की एक विधि होती है और अगर इसे सही से ना किया जाए तो पूर्वज अतृप्त रहते हैं. 

Wednesday 12 September 2018

हैप्पी बर्थडे बप्पाः जानिए कैसे हुई गणेशोत्सव की शुरूआत, स्वतंत्रता आंदोलन से है कनेक्शन




आज देवों के देव महादेव के लाडले बेटे गणपति का हैप्पी बर्थडे है. आज के ही दिन बुद्धि, समृद्धि और सौभाग्‍य के देवता भगवान गणेश का जन्‍म हुआ था. हिन्‍दू मान्‍यताओं के अनुसार, भादो माह की शुक्‍ल पक्ष चतुर्थी को भगवान गणेश का जन्‍म हुआ था. उनके हैप्पी बर्थडे को ही गणेश चतुर्थी कहा जाता है.

वैसे तो गणपति के जन्मदिन को पूरा देश सेलिब्रेट करता है, लेकिन मुंबई और मध्य प्रदेश में खासतौर पर सेलिब्रेट करते हैं. बप्पा के जन्मदिन का जश्न दस दिन तक मनाया जाता है. यह गणेश चतुर्थी से शुरू होकर अनंत चतुर्दशी के दिन खत्म होता है. लोग बप्पा की मूर्ति घर लाते हैं और बप्पा का विसर्जन अगले साल आने के वादे के साथ करते हैं.

इनके जन्म की स्टोरी बहुत ही इंटरेस्टिंग है. कई बार टीवी पर देख चुके हैं तो अगले 9 दिनों विनायक की कहानी लिख देंगे, कहानी थोड़ी बड़ी है ना. अभी के लिए ये जान लीजिए की कब इसकी शुरूआत हुई. गणेश उत्‍सव सबसे पहले महाराष्‍ट्र में मनाया गया, जैसा कि सबको पता है बप्पा के जन्म का जश्न बहुत ही शानदार तरीके से मनाते हैं.

भारत में जब से पेशवाओं का शासन था, तब से गणेश उत्‍सव मनाया जाता है. मराठा शासक छत्रपति शिवाजी ने गणेशोत्सव को राष्ट्रीयता एवं संस्कृति से जोड़कर एक नई शुरुआत की थी. पेशवाओं के समय में विनायक को राष्ट्रदेव के रूप में दर्जा प्राप्त था, क्योंकि वे उनके कुलदेव थे. पेशवाओं के बाद ब्रिटिश शासन 1818 से 1892 तक लोग घरों में ही गणेशोत्सव मनाते थे. यह पर्व हिन्दू घरों के दायरे में ही सिमटकर रह गया था, लेकिन हमारे वीर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में पुणे में पहली बार सार्वजनिक रूप से गणेशोत्सव मनाया. उनका ये प्रयास एक आंदोलन बना और स्वतंत्रता आंदोलन में इस गणेशोत्सव ने लोगों को एकजुट करने में अहम भूमिका निभाई.
बाकी जन्म की कहानी अगले आर्टिकल में...

Friday 7 September 2018

आज है इंटरनेशनल साक्षरता दिवस, जान लो कब हुई इसकी शुरूआत





आज सभी इंटरनेशनल साक्षरता दिवस सेलिब्रेट कर रहे हैं. डिजिटलाइजेशन के स्वैग में लगभग सभी ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर साक्षरता दिवस को लेकर काफी कुछ पोस्ट किया होगा और तस्वीरें शेयर की होंगी. लेकिन क्या कभी किसी ने ये सोचा इसे क्यों मनाते हैं या इसकी शुरूआत कब हुई होगी... सोचा ही होगा एक से एक बुद्धिजीवी है अपने देश में.

आज आठ सितंबर को हम 52 वां इंटरनेशनल साक्षरता दिवस मना रहे हैं तो ये जानना भी बनता है कि कैसे हुई इसकी शुरूआत और क्या है इसका मकसद.

साल 1966 में यूनेस्को माने संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन ने शिक्षा के लिए  लोगों में जागरूकता की अलख ज्योत जलाने और वर्ल्ड के लोगों का ध्यान अट्रैक्ट करने के लिए हर साल 8 सितम्बर को इंटरनेशनल साक्षरता दिवस मनाने का सॉलिड फैसला किया. इस फैसले के बाद  दुनियाभर में हर साल 8 सितंबर को ये दिन मनाया जा रहा है.

भले ही इसे 1966 में लागू किया गया हो,लेकिन ये सोच लागू होने से पहले की है. निरक्षरता को खत्म करने के लिए इसे मनाने का ख्याल पहली बार ईरान में शिक्षा मंत्रियों के वर्ल्ड सम्मेलन के दौरान आया था. 8 से 19 सितंबर तक इसके बारे में जमकर चर्चा हुई.

फिर क्या जिस तरह जाने वाले को कोई नहीं रोक सकता तो आने वाले को कौनों ना रोक पाएगा. 26 अक्टूबर 1966 को यूनेस्को ने 14वें जरनल कॉन्फ्रेंस में घोषणा की. यूनेस्को ने कहा कि ध्यान से मेरी बात को गांठ बांध लो हर साल पूरी दुनिया में 8 सितंबर को 'अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस' के रूप में मनाया जाएगा.

बस इत्ती से कहानी है. वैसे तो सभी मानते हैं कि शिक्षा बिना इंसान अधूरा है, सोशल और पर्सनल तौर पर लोगों का विकास शिक्षा के जरिए ही संभव है, इसलिए सबका शिक्षित होना बेहद जरूरी, ताकि लोगों को अपनी परिस्थितियों से लड़ने में आसानी मिल सके. 
ज्यादा ज्ञान नहीं देंगे. बस सबको मदद करने की जरूरत छोटी हो या बड़ी फर्क नहीं पड़ता, जो बच्चे शिक्षा पाने में सक्षंम नहीं हैं, उनकी मदद ज्यादा कुछ नहीं. स्टेटस अपडेट करने से तो बेहतर है.....


Sunday 2 September 2018

कान्हा के जन्मदिन पर पढ़िए उनकी स्टोरी, रोम-रोम हो जाएगा पावन



हाथी घोड़ा पाल की जय कन्हैया लाल की... आज कान्हा के जन्मदिन की धूम पूरे देश में मची हुई. हर गली, मोहल्ले, चौराहे पर कान्हा के जन्मदिन को अपने ढंग से मनाया जा रहा है. मंदिरों में झंकियां सज चुकी हैं. कान्हा के जन्मदिन की तैयारियां कई दिनों पहले से चल रही थी.  नटखट कन्हैया के बारे में कई कहानियां सुनी और देखी होंगी. मन हो तो इसे भी पढ़ लीजिएगा.

लोगों का ऐसा मानना है कि कान्हा के जन्म की कहानी सुनने से भक्तों के कष्ट कम होते हैं... सुन तो नहीं सकते, लेकिन हां पढ़ने का मन हो तो पढ़ लीजिएगा.

कान्हा भगवान विष्णु के 8 वें अवतार हैं. ये बात तो सबको पता होगी, फिर भी लिख देती हूं. कान्हा के जन्म की बात करें तो बड़े संकटों के बाद वह इस दुनिया में आए, लेकिन जब आए तो स्वैग से सभी ने उनका स्वागत किया. कान्हा का खौफ उनके जन्म से पहले ही मामा कंस को था, इसलिए मामा कंस ने अपनी बहन देवकी और बहनोई वसुदेव को काल कोठरी में डर की वजह से बंद कर दिया, लेकिन होनी को कौन टाल सकता है.

भादो मास की अष्टमी की घनघोर काली रात में रोहिणी नक्षत्र में लडु गोपाल ने आंखें खोलीं. उसके बाद वसुदेव कान्हा को अपने बेस्ट फ्रेंड नंद के घर यमुना को पार कर छोड़ आए. उन्होंने कान्हा को यशोदा के साथ सुला दिया और कन्या को लेकर मथुरा आ गए.

मामा कंस को जैसे ही कारागार से बच्चे की रोने की आवाज सुनी. वह वहां पहुंच गया और कन्या को छीनकर पटक देना चाहा, लेकिन वह कन्या आकाश में उड़ गई और कहा- 'अरे मूर्ख, तुझे मारनेवाला तो वृंदावन जा पहुंचा है. वह जल्द ही तेरे पापों का दंड देगा. मेरा नाम वैष्णवी है और मैं उसी जगद्गुरु विष्णु की माया हूं.' इतना कहकर वह गायब हो गईं.

ये जानने के बाद कान्हा को मारने के लिए मामा कंस ने कई कोशिशें की, लेकिन सारी प्लानिंग बार-बार फेल हो गईं. कान्हा को मारने के लिए मामा कंस ने पूतना, केशी, अरिष्ट नामक, काल नामक जैसे दैत्यों को भेजा, लेकिन मुरली बज्जैया श्याम सलोने का कुछ नहीं बिगाड़ सके.

जब सारे प्लान फेल हो गए तो मामा कंस ने कान्हा और बलराम को मथुरा बुलाया. उनके वहां पहुंचने पर कंस ने पहलवान चाणुर और मुष्टिक के साथ मल्ल युद्ध की घोषणा की. कान्हा और बलराम ने दोनों को ठिकाने लगा दिया. उसके बाद कंस के भाई केशी का संहार किया. सबसे आखिर में कंस की बारी थी तो रेडी बैठे थे मरने के लिए. कान्हा ने मामा कंस का वध किया.

कंस के मरने के बाद सभी देवताओं ने आकाश से दोनों पर फूलों की वर्षा की. उसके बाद कृष्ण ने अपने माता-पिता को कारागार से मुक्त किया और उग्रसेन को मथुरा की गद्दी सौंप दी. बाकी तो सभी को पता है आगे क्या हुआ...

तो बोलो बंसी बजैय्या की जय...

Thursday 16 August 2018

एक ‘अटल युग’ का अंत…



मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं, लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं... आपके लौटकर आने का इंतजार हमेशा रहेगा... अटल बिहारी वाजपेयी जी हम खुशनसीब हैं, जो हमने आपको सुना और देखा, जिस उम्र में बच्चे खेल में बिजी रहते हैं, उस उम्र में मैंने आपको पढ़ा और सुना. ज्यादा समझ ना होते हुए भी आपके भाषण को सुनती और कविताएं पढ़ती थी. बचपन में ही सोच लिया था, पहला वोट आपको ही करना है, लेकिन जब तक इस लायक हुए, तब तक काफी देर हो चुकी थी. ंमैंने हमेशा बीजेपी को आपके नाम से जाना है ना कि कमल से.

भारतीय राजनीति का ध्रुव तारा माने जाने वाले अटल जी के इरादे बुलंद थे, जिसके बलबूते पर उन्होंने देश की राजनीति में नए आयाम स्थापित किए और देश को ऊंचाइयों तक पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. आज शाम पांच बजकर पांच मिनट पर दिल्ली के एम्स में अटल बिहारी वाजपेयी ने 93 साल की उम्र में अंतिम सांस ली.

इन सांसों को थमने के लिए भी काफी मशक्कत करनी पड़ी, क्योंकि अटल जी कभी हार मानने वालों में से नहीं थे. वे अटल थे, अटल हैं और हमेशा अटल रहेंगे. राजनीति में बदलाव की बयार को लाने वाले अटल जी कई सालों से इससे दूर थे. साल 2005 में मुंबई के शिवाजी पार्क में भाजपा की रजत जयंती समारोह के दौरान एक रैली को संबोधित करते हुए अटल जी ने घोषणा की कि वह चुनावी राजनीति से रिटायर होंगे.

देश को स्वस्थ लोकतंत्र देने वाले अटल जी सालों से कई बीमारियों से जूझ रहे थे. अटल जी जब तक स्वस्थ थे, देश की राजनीति भी फलफूल रही थी. अटल जी की सभाओं में दिए गए भाषण आज भी लोगों को सिखाते हैं कि राजनीति अभद्र होने का नाम नहीं है. दोस्ताना अंदाज से भी विरोधियों की आलोचना की जा सकती है.

वह तीन बार देश के पीएम बने, सबसे चहेते... आम से लेकर खास, हर दिल अजीज, लोगों को समझने वाले... प्रधानमंत्री... मेरे भी. पांच साल सरकार चलाने के अलावा वे दो बार 13 दिन और 13 महीने तक देश की सेवा की. दोनों बार उन्हें अविश्वास प्रस्ताव के दौरान विपक्ष के तीखे हमले झेलने पड़े. फिर भी वह अटल इरादों के साथ आगे बढ़ते रहे.

उनके जाने से कलयुग के भव्य अटल युग का अंत हो गया है. एक महान जननायक, कवि, लेखक, वक्ता और भारत रत्न श्री अटलजी को विनम्र श्रद्धांजलि...
शब्दों को विराम देते हुए अटल जी की लिखी अपनी फेवरेट कविता को सभी के साथ शेयर कर रही हूं.

कौरव कौन, कौन पांडवटेढ़ा सवाल है...
दोनों ओर शकुनि का फैला कूटजाल है...
धर्मराज ने छोड़ी नहीं जुए की लत है...
हर पंचायत में पांचाली अपमानित है...
बिना कृष्ण के आज महाभारत होना है...
कोई राजा बने, रंक को तो रोना है...






Thursday 19 July 2018

भगवा से बैंगनी हुआ भारतीय रुपया, अगस्त से होगा सबकी जेब में



बहुत दिन बाद कुछ लिखने जा रही हूं, कोई टॉपिक ही नहीं मिल रहा था तो ट्विटर स्क्रोल कर रही थी. फाइनली मुझे कुछ मिला. एएनआई का ताजातरीन ट्वीट. इस ट्वीट में नए-नवेले 100 के नोट की तस्वीर शेयर की है. 
जल्द ही आरबीआई यानी रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया 100 का नया नोट मार्केट में उतारने वाली है.  इस तस्वीर में आगे और पीछे माने दोनों तरफ से 'नोट दिखाई' की गई है. नोटबंदी के बाद 10, 50, 200, 500 और 2000 के नए नोट जारी करने के बाद 100 का नया नोट जल्द ही आपकी जेब में होगा.
नोट का कलर देखकर तो बस मुंह से एक ही बात निकली, भगवा से बैंगनी हुआ भारतीय रुपया. इसलिए हेडिंग यही लगाई है. वैसे तो बाकी नए नोटों के कलर ने काफी सुर्खियां बटोरीं, लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा में रहा भगवा 200 का नोट, इसलिए हेडिंग यही लगाई है.  इस नोट को रंग ही कुछ ऐसा था. इसे पीएम मोदी के भगवा मिशन से भी जोड़ा गया. कुछ लोगों की आंखों को भगवा रंग सुकून देता है तो कुछ को चुभता है. खैर, जो भी हो चर्चा तो बटोर ही ली. 
अब नए-नवेले नोट की बात करते हैं. पुराने वाले 100 के नोट से थोड़ा छोटा होगा. नोट के आगे के हिस्से में अंकों में 100 रुपए लिखा होगा और गांधी जी की तस्वीर के लेफ्ट में हिंदी की गिनती में 100 लिखा होगा. गवर्नर उर्जित पटेल के साइन और राइट साइड में भारत की शान अशोक स्तंभ की तस्वीर होगी और बाकी वही सब लिखा हुआ है.
नोट के पिछले हिस्से की बात करें तो भारतीय सांस्कृतिक विरासत को समेटे हुए रानी की वाव की तस्वीर बनी हुई है. साथ ही स्वच्छ भारत का सुनहरा सपना भी अपनी जगह लिए हुए है.
ये नोट अगस्त 2018 से मार्केट में हर तरफ नजर आएगा. अगर आपकोनये चिंता सता रही है कि नए वाले नोट के आ जाने से पुराने की वैल्यू कम हो जाएगी तो ऐसा बिलकुल नहीं होगा. आप बेझिझक पूरी शान से नोट को जेब में रख सकते हैं, क्योंकि आरबीआई ने साफतौर पर ऐलान किया है कि नए नोट आने के बाद पुराने 100 के नोट का चलन रहेगा, तो फिर थोड़ा इंतजार का मजा लीजिए. अगस्त में बहन आपकी कलाई में प्यार बांधे तो बाकी रंगों के नोटों के साथ इस रंग को भी शामिल कर लीजिएगा. मतलब बहना का पर्स कलरफुल हो जाएगा.
अब बात करते हैं रानी की वाव की ऐतिहासिक होने के साथ खुद में काफी कुछ समेटे है. यह गुजरात के पाटन जिले में है. गुजरात है तो मोदी कनेक्शन ना ढूंढने लग जाइयेगा. राजनीति नहीं चलेगी.
रानी की वाव को महारानी उदयामती ने अपने पति राजा भीमदेव के प्रेम से भरी स्मृति के रूप में बनवाया था. यह सीढ़ीदार कुआं है. ये सात मंजिला है. वाव के खंभों पर सोलंकी वंश और उनके पराक्रम की कहानी सुनाते हैं. रानी की वाव को यूनेस्को ने विश्व विरासत स्थल में सम्मिलित कर चुकी है.


https://twitter.com/ANI/status/1019881976986324992

Thursday 10 May 2018

भारत तो बंद था लेकिन बाकी सब धड़ल्ले से चालू था



late post 
भारत बंद दो शब्द जिनकी वजह से ना जाने कितने लोगों को मानसिक और शारीरिक पीड़ा झेलनी पड़ी. एक समुदाय जो अपनी बात मनवाने के लिए सड़कों पर हथियारों के साथ उतर आया. वहीं दूसरे ने भी वही तरीका अपनाया. उन्हें तो बस अपनी बात मनवानी थी, चाहे तरीका कैसा और इरादे कैसे भी हो.
भारत बंद के दौरान एक बात बड़ी ही दिलचस्प थी. भारत तो बंद था, लेकिन बाकी सब धड़ल्ले से चालू था. मेरा मतलब लड़ाई-झगड़े, लोगों को मारना, आग लगाना, बाकी जनता को परेशान करना आदि, सब चालू था. सड़कें वीरान, दुकान बंद करवाने और गाड़ियों को जलाने में भारत बंद नहीं था.
बाबा साहेब की उसूलों को तांक पर रखकर निकल लिए आरक्षण का घंटा बजाने. बात करें पहले भारत बंद कि तो ये बंद दलितों ने 2 अप्रैल को आरक्षण के लिए किया था. इस बंद में हजारों लोग सड़कों पर घूम रहे थे.
सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी एक्ट में बदलाव के खिलाफ देशभर को दलित संगठनों ने सड़कों पर उतर कर कोर्ट के फैसले का विरोध करने का फैसला किया था. बिना ये सोचे की बंद की वजह से जाने-अंजाने लोगों को दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा.
इस बंद को कई मंत्रियों ने भी सपोर्ट किया. अजीब लगता है उनके ऐसे बिहेवियर पर. उसके बाद कई लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. कई लोगों की जिदंगी तबाह हुई. जो लोग रोज कमाकर अपने परिवार का पेट पालते हैं, शायद बंद की वजह से भूखा ही सोना पड़ा हो. किसी को इलाज ना मिला कोई चाह कर भी मिल ना पाया हो लेकिन इससे इन्हें क्या लेना देना. ये फिर से मारे गए दलितों के लिए बंद की आंधी लेकर आएंगे.
  इसके बाद एक और बंद होना था 10 अप्रैल को, पूरा सोशल मीडिया इस बंद की चिंगारी को फैलाने में लगा हुआ था. समझदार लोग, बड़े-बड़े पद पर जॉब करने वाले लोग इस बंद के सपोर्ट में थे. ना जाने कितने मैसेज और पोस्ट मैने देखे, जिन्हें देखकर ये अंदाजा हो गया कि हम जितना साइंस और टेक्नोलॉजी में आगे बढ़ रहे हैं, हम सोच में उतना ही पीछे जा रहे हैं. दोनों भारत बंद में एक बात समान थी हिंसा. हमें अपनी बात मनवाने के लिए हिंसा ही करनी आती है.
10 अप्रैल को आयोजित बंद में फिर से हिंसा न फैले इसलिए गृहमंत्रालय दिशा निर्देश तो जारी कर दिए थे. लेकिन फिर भी वह इसे रोकने में नाकाम रहे. पूर्वी क्षेत्रों में हिंसा की आग में कई लोगों को झुलसना पड़ा.
उत्तर प्रदेश के कई जिलों में पुलिस और प्रशासन ने अलर्ट जारी कर धारा 144 लागू कर दी गई. वहीं मध्यप्रदेश में भी स्कूल कॉलेज की छुट्टी कर दी गई है, जबकि कई शहरों में इंटरनेट की सुविधा भी बंद कर दी गई है.
भारत बंद के दौरान देशभर में हिंसा हुई. करीब 12 लोगों को जान गंवानी पड़ी थी. लेकिन क्या फर्क पड़ता है बंद में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वालों को, लोग तो मरते रहते हैं.
दोनों भारत बंद के बाद तो ये यकीन हो गया है कि इंसानियत सिसक-सिसक कर दम तोड़ रही है.




Sunday 29 April 2018

डिजिटलाइजेशन के जमाने मे सोशल साइट्स का बढ़ता पैमाना



वो जमाने चले गए जब हम रिजल्ट देखने के लिए साइबर कैफे पर अपनी बारी का घंटों इंतजार करते थे. आज के दौर 
में हर किसी के हाथ में इंटरनेट है और वह पलभर में रिजल्ट की सोशल साइट पर जाकर रिजल्ट देख सकता है. आज हर उम्र के लोगों में सोशल साइट्स का क्रेज है. अपनी जरूरत की चीजों के साथ पहचान बनाने का भी कारगर माध्यम है, ये सोशल साइट्स.

सोशल नेटवर्किंग साइट लोगों से जुड़ने, अपने विचारों का आदान-प्रदान करने का एक अनोखा स्टेज हैं, जहां आसानी से पहचान बना सकते है. सोशल नेटवर्किंग साइट के बिना वेब जगत की कल्पना ही नहीं की जा सकती.

फेसबुक, ट्विटर, लिंक्ड इन जैसी ना जाने कितनी साइट होंगी, जो आम लोगों में भी अपनी पकड़ मजबूत बनाए हुए है, ये सिर्फ कारपोरेट, राजनीति या किसी बड़े माध्यम तक सीमित नहीं है.

सोशल साइट्स भगवान के प्रसाद की तरह है, जो सबके लिए अवलेबल है. ये किसी के साथ भेदभाव नहीं करती, छोटा, बड़ा, अमीर, गरीब सबके साथ एक जैसी ही है.

सोशल साइट्स के नुकसान

फायदे तो हो गए अब बात करते हैं नुकसान की. यह बहुत सारी इंफॉरमेशन देता है, जिनमें से कुछ अच्छी तो कुछ फेक होती हैं. साथ ही साइबर क्राइम भी तेजी से बढ़ रहा है.

इंफॉरमेशन को अपने तरीके से लोग शेयर करते है. जैसे कि कई तस्वीरे और वीडियो जो कहीं और के किसी और के होते हैं. उन्हें अन्य लोगों से जोड़कर पेश किया जाता है.  कई बार तो इन बातों का रियलिटी से कोई मतलब नहीं होता.

कंटेंट का कोई मालिक न होने से मूल स्रोत का पता नहीं चलता और किसी का भी कंटेट चेप कर शंहशाह बन जाते हैं.
प्राइवेसी नहीं होती. फोटो या वीडियो की एडिटिंग करके भ्रम फैलाया जाता है, जिनके कारण दंगे जैसी स्थिति भी हो सकती है.

सोशल साइट्स की 2020 तक पहुंच

यह बहुत तेजी से लोगों के बीच अपनी पैठ बना रहा है. पैदा होने वाले बच्चों से लेकर 70 साल के लोग भी इस मीडियम से जुड़े हुए हैं.  यह जानकारी को एक ही जगह इकट्ठा करता है. बहुत ही आसानी से सभी न्यूज लोगों तक पहुंचाता है, जिसकी वजह से लोग इससे जुड़ते जा रहे हैं. 

2020 तक जो लोग सोशल साइट्स से नहीं जुड़े हैं वो भी जुड़ जाएंगे. खूबसूरत सी प्रोफाइस पिक के साथ इनसे जुड़ जाएंगे. सोशल साइट्स की पहुंच गांव के लोगों में भी है. 2020 तक जो इसे नहीं जानते वो भी इससे जुड़ने की कोशिश में रहेंगे. क्योंकि यह हर भाषा में हैं तो लोग इससे बिना किसी रूकावट के जुड़ रहे हैं.

Wednesday 21 March 2018

#WorldPuppetryDay : पुराणों से हुआ कठपुतलियों का जन्म, गायब होने से पहले जान लें खास बातें



डेट और समय ठीक से याद नहीं है. लेकिन एक वर्कशाप में कुछ कठपुतलियों का शो देखा था. कठपुतलियों को देखना मुझे काफी अच्छा लगता है. बचपन में बहुक बार तो नहीं पर गिनती के 6 या 7 बार कठपुतली का नाटक देखा, जिसमें सास गुलाबो और बहू सिताबो की खटपट को दिखाया जाता था. लेकिन आज डिजिटल हो चुकी दुनिया में नाममात्र ही कठपुतली नजर आती हैं. आज 21 मार्च को world puppetry day मनाया जा रहा है.

इंटरनेट के दौर में कठपुतली या पपेट का खेल जैसे कहीं खो गया है. गलती से भी मैने इस शब्द किसी के मुंह से नहीं सुना है. एक दौर ऐसा भी था, जब कठपुतली के खेल को लोग देखने के लिए लोग कोई मौका नहीं छोड़ते थे. कठपुतलियों का खेल हमारे देश भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के हर कोने में छाया हुआ था.

आज विश्व कठपुतली दिवस पर कठपुतलियों के लुप्त होने से पहले जान लेते हैं इतिहास के बारे में.

कई कलाओं में से इस कला का जन्म भी हमारे देश से हुआ. ग्रंथों और पुराणों से इनका जन्म हुआ है. कठपुतली शब्द 
संस्कृत के 'पुत्तलिकाया 'पुत्तिकाऔर लैटिन के 'प्यूपासे मिलकर बना हैजिसका अर्थ है-छोटी गुड़िया. ऐसा माना जाता है कि दूसरी शताब्दी में लिखे तमिल महाकाव्य 'शिल्पादीकरमसे इसका जन्म हुआ. वहीं कई लोग मानते हैं कि चौथी शताब्दी में लिखे 'पाणिनीग्रंथ के पुतला-नाटक और 'नाट्यशास्त्रसे इनका जन्म हुआ.

कठपुतली कला का विस्तार पूरे देश में हुआ और यह अलग-अलग राज्यों की भाषापहनावे और लोक-संस्कृति के रंग में रंगने लगी. अंग्रेजी शासनकाल में यह कला विदेशों में भी पहुंच गई. आज यह कला इंडोनेशियाथाईलैंडजावाश्रीलंकाचीनरूसरूमानियाइंग्लैंडअमरीकाजापान में पहुंच चुकी है.

यूरोप में अनेक नाटकों की तरह ही कठपुतलियों के नाटक भी होते हैं. फ्रांस में तो इस खेल के लिए स्थायी रंगमंच भी बने हुए हैं, जहां नियमित रूप से इनके खेल खेले जाते हैं. फ्रांस में कठपुतलियों का स्टेट्स काफी हाई है, जिसकी वजह से रियल लगती हैं.  

समय के साथ इस कठपुतली कला में काफी बदलाव हुए हैं. पहले इनके प्रदर्शन में लैंप और लालटेन का इस्तेमाल होता था.आज कठपुतली कला के बड़े-बड़े थियेटर में शोज किए जाते हैं.
दुनिया भर में कठपुतली कला इन नामों से फेमस है.



भारत में कठपुतली
राजस्थान की स्ट्रिंग कठपुतलियां दुनिया भर में मशहूर हैं. इसके अलावा उड़ीसाकर्नाटक और तमिलनाडु में भी कठपुतलियों की यही कला प्रचलित है. राजस्थानी कठपुतलियों का ओवल चेहराबड़ी आंखेंधनुषाकार भौंहें और बड़े होंठ इन्हें अलग पहचान देते हैं. 

स्ट्रिंग कठपुतली
भारत में धागा कठपुतली सबसे ज्यादा मशहूर है. कठपुतली के सिरगर्दनबाजूउंगलियोंपैर जैसे हर जोड़ पर धागा बंधा होता हैजिसकी कमान कठपुतली-चलाने वाले के हाथ में होती है.

रॉड कठपुतली
इस तरह की कठपुतली के सिर और हाथ को एक रॉड से नियंत्रित किया जाता है. इसकी शुरुआत इंडोनेशिया में हुई.

कार्निवल कठपुतली
इस तरह की कठपुतली का इस्तेमाल किसी बड़े फंक्शन में किया जाता है. यह बहुत बड़ी कठपुतली होती है. आर्टिस्ट कठपुतली के अंदर जाकर इसे चलाते हैं. इसका बेहतरीन उदाहरण चीन में न्यू ईयर के मौके पर इस्तेमाल होने वाली ड्रैगन कठपुतली है.

दस्ताना (हैंड) कठपुतली
ऐसा माना जाता है कि 17वीं शताब्दी में चीन में इसका जन्म हुआ था. यह कठपुतली एक दस्ताने की तरह हाथ में फिट हो जाती है. कठपुतली का सिर कलाकार के हाथ के बीच की उंगली में और उसके हाथ अंगूठे और पहली छोटी उंगली में डाले जाते हैं.

शेडो कठपुतली
ये सबसे पुरानी शैली की कठपुतली मानी जाती है. कठपुतलियां लैदरपेपरप्लास्टिक या लकड़ी से बनाई जाती हैं. इसके शो प्रकाश व्यवस्था पर निर्भर करते हैंजिससे कठपुतली के हाव-भाव और आकार साफ तौर पर दिखाई देते हैं. इसकी शुरुआत भारत और चीन में मानी जाती है.

लखनऊ की गंगा-जमुनी तहजीब की खूबसूरत कहानी है बड़ा मंगल

  कलयुग के आखिरी दिन तक श्री राम का जाप करते हुए बजरंगबली इसी धरती पर मौजूद रहेंगे। ऐसा हमारे ग्रंथों और पौराणिक कहानियों में लिखा है। लखनऊ ...