Wednesday, 21 March 2018

#WorldPuppetryDay : पुराणों से हुआ कठपुतलियों का जन्म, गायब होने से पहले जान लें खास बातें



डेट और समय ठीक से याद नहीं है. लेकिन एक वर्कशाप में कुछ कठपुतलियों का शो देखा था. कठपुतलियों को देखना मुझे काफी अच्छा लगता है. बचपन में बहुक बार तो नहीं पर गिनती के 6 या 7 बार कठपुतली का नाटक देखा, जिसमें सास गुलाबो और बहू सिताबो की खटपट को दिखाया जाता था. लेकिन आज डिजिटल हो चुकी दुनिया में नाममात्र ही कठपुतली नजर आती हैं. आज 21 मार्च को world puppetry day मनाया जा रहा है.

इंटरनेट के दौर में कठपुतली या पपेट का खेल जैसे कहीं खो गया है. गलती से भी मैने इस शब्द किसी के मुंह से नहीं सुना है. एक दौर ऐसा भी था, जब कठपुतली के खेल को लोग देखने के लिए लोग कोई मौका नहीं छोड़ते थे. कठपुतलियों का खेल हमारे देश भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के हर कोने में छाया हुआ था.

आज विश्व कठपुतली दिवस पर कठपुतलियों के लुप्त होने से पहले जान लेते हैं इतिहास के बारे में.

कई कलाओं में से इस कला का जन्म भी हमारे देश से हुआ. ग्रंथों और पुराणों से इनका जन्म हुआ है. कठपुतली शब्द 
संस्कृत के 'पुत्तलिकाया 'पुत्तिकाऔर लैटिन के 'प्यूपासे मिलकर बना हैजिसका अर्थ है-छोटी गुड़िया. ऐसा माना जाता है कि दूसरी शताब्दी में लिखे तमिल महाकाव्य 'शिल्पादीकरमसे इसका जन्म हुआ. वहीं कई लोग मानते हैं कि चौथी शताब्दी में लिखे 'पाणिनीग्रंथ के पुतला-नाटक और 'नाट्यशास्त्रसे इनका जन्म हुआ.

कठपुतली कला का विस्तार पूरे देश में हुआ और यह अलग-अलग राज्यों की भाषापहनावे और लोक-संस्कृति के रंग में रंगने लगी. अंग्रेजी शासनकाल में यह कला विदेशों में भी पहुंच गई. आज यह कला इंडोनेशियाथाईलैंडजावाश्रीलंकाचीनरूसरूमानियाइंग्लैंडअमरीकाजापान में पहुंच चुकी है.

यूरोप में अनेक नाटकों की तरह ही कठपुतलियों के नाटक भी होते हैं. फ्रांस में तो इस खेल के लिए स्थायी रंगमंच भी बने हुए हैं, जहां नियमित रूप से इनके खेल खेले जाते हैं. फ्रांस में कठपुतलियों का स्टेट्स काफी हाई है, जिसकी वजह से रियल लगती हैं.  

समय के साथ इस कठपुतली कला में काफी बदलाव हुए हैं. पहले इनके प्रदर्शन में लैंप और लालटेन का इस्तेमाल होता था.आज कठपुतली कला के बड़े-बड़े थियेटर में शोज किए जाते हैं.
दुनिया भर में कठपुतली कला इन नामों से फेमस है.



भारत में कठपुतली
राजस्थान की स्ट्रिंग कठपुतलियां दुनिया भर में मशहूर हैं. इसके अलावा उड़ीसाकर्नाटक और तमिलनाडु में भी कठपुतलियों की यही कला प्रचलित है. राजस्थानी कठपुतलियों का ओवल चेहराबड़ी आंखेंधनुषाकार भौंहें और बड़े होंठ इन्हें अलग पहचान देते हैं. 

स्ट्रिंग कठपुतली
भारत में धागा कठपुतली सबसे ज्यादा मशहूर है. कठपुतली के सिरगर्दनबाजूउंगलियोंपैर जैसे हर जोड़ पर धागा बंधा होता हैजिसकी कमान कठपुतली-चलाने वाले के हाथ में होती है.

रॉड कठपुतली
इस तरह की कठपुतली के सिर और हाथ को एक रॉड से नियंत्रित किया जाता है. इसकी शुरुआत इंडोनेशिया में हुई.

कार्निवल कठपुतली
इस तरह की कठपुतली का इस्तेमाल किसी बड़े फंक्शन में किया जाता है. यह बहुत बड़ी कठपुतली होती है. आर्टिस्ट कठपुतली के अंदर जाकर इसे चलाते हैं. इसका बेहतरीन उदाहरण चीन में न्यू ईयर के मौके पर इस्तेमाल होने वाली ड्रैगन कठपुतली है.

दस्ताना (हैंड) कठपुतली
ऐसा माना जाता है कि 17वीं शताब्दी में चीन में इसका जन्म हुआ था. यह कठपुतली एक दस्ताने की तरह हाथ में फिट हो जाती है. कठपुतली का सिर कलाकार के हाथ के बीच की उंगली में और उसके हाथ अंगूठे और पहली छोटी उंगली में डाले जाते हैं.

शेडो कठपुतली
ये सबसे पुरानी शैली की कठपुतली मानी जाती है. कठपुतलियां लैदरपेपरप्लास्टिक या लकड़ी से बनाई जाती हैं. इसके शो प्रकाश व्यवस्था पर निर्भर करते हैंजिससे कठपुतली के हाव-भाव और आकार साफ तौर पर दिखाई देते हैं. इसकी शुरुआत भारत और चीन में मानी जाती है.

Sunday, 18 March 2018

नवरात्र के पहले दिन को खास बनाएगी इस संघर्षशील महिला की कहानी



आज से नवरात्र शुरू हो गए हैं. नौ दिनों तक मंदिरों में भक्तों की भीड़ रहने वाली है. पापी,चंडाली, औरतों और लड़कियों को सताने वाले लोग भी मां के दरबार में जाकर जयकारे लगाएंगे. भले ही घर पर अपनी मां और पत्नी को बेइज्जत करें. लेकिन इन नौ दिनों में हर वो चीज करेंगे, जो अंबे मां को प्रसन्न कर सके. नवरात्र के दिन बड़े ही पावन होते है. इन पावन दिनों को और भी खास बनाया है. कुछ सिंपल दिखने वाली औरतों ने जिन्होंने हर लड़ाई को जीतकर अपनी पहचान बनाई है. नवरात्र के नौ दिनों में ऐसी ही महिलाओं की बात करने वाले हैं.

नवरात्र के पहले दिन मां शैलपुत्री की पूजा की जाती है. मां का स्वरूप इस प्रकार है- सिर पर मुकुट और उसमें त्रिशूल शोभित है. इनके दाएं हाथ में त्रिशूल, बाएं हाथ में कमल सुशोभित है.

ऐसी ही एक महिला हैं, जिनके सिर पर भले ही मुकुट ना हो. लेकिन उन पर मां नर्मदा का आशीर्वाद हमेशा बना रहेगा. जिनकी आवाज एक गूंज बनकर उभरी. जब-जब नर्मदा की बात की जाती है तो मेधा पाटकर की बात जरूर होगी. आइए जानते हैं इनके जीवन का खास हिस्सा.

मेधा पाटकर को 'नर्मदा की आवाज' के रूप में जाना जाता है. मेधा ने 'सरदार सरोवर परियोजना' से प्रभावित होने वाले लगभग 37 हजार गांव के लोगों को अधिकार दिलाने की लड़ाई लड़ी.

मेधा का जन्म 1 दिसंबर 1954 को मुंबई में हुआ था. मेधा के माता-पिता सोशल वर्कर थे.
मेधा ने टाटा इंस्टी ट्यूट ऑफ सोशल साइंस से सोशल वर्क में एमए कम्पलीट किया और अपने काम में लग गईं. मुंबई से शुरू हुए सफर की पहली सीढ़ी की ओर बढ़ी. झुग्गियों में बसे लोगों की सेवा करने वाली संस्था.ओं से जुड़ गईं।

28 मार्च 2006 को मेधा ने ने नर्मदा नदी के बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाने के विरोध में भूख हड़ताल पर बैठने का फैसला किया. मेधा को पता था कि जिस मंजिल तक वह पहुंचने का रास्ता मुश्किल होने वाला है. लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. पूरा समय नर्मदा नदी पर लगाने के लिए उन्होनें अपनी पी.एच.डी की पढ़ाई तक छोड़ दी थी.

17 अप्रैल 2006 को सुप्रीम कोर्ट से नर्मदा बचाओ आंदोलन के तहत बांध पर निर्माण कार्य रोक देने की अपील को खारिज कर दिया. लेकिन उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी.

नर्मदा बचाओ आंदोलन के अलावा भी मेधा ने कई लड़ाइयां लड़ी हैं. समाज की सेवा के साथ मेधा ने राजनीति में भी एंट्री की. लेकिन राजनीति उन्हें रास ना आई. 13 जनवरी 2014 को उन्होंपने आम आदमी पार्टी में सम्मि लित होने के घोषणा की. लोकसभा चुनाव 2014 में मेधा उत्त र-पूर्व मुंबई से आम आदमी पार्टी के उम्मीीदवार के रूप में चुनाव लड़ा था.

मेधा के कार्यों के लिए पुरस्कारों से भी नवाजा गया, जो इस प्रकार हैं.
साल    पुरस्कार
1991-सही आजीविका पुरस्कार
1992- गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार
1995- बीबीसी, इंग्लैंड द्वारा सर्वश्रेष्ठ अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक प्रचारक के लिए ग्रीन रिबन अवार्ड
1999- एमनेस्टी इंटरनेशनल, जर्मनी से मानव अधिकार डिफेंडर का पुरस्कार
1999- विजील इंडिया मूवमेंट से एम.ए. थॉमस नेशनल ह्यूमन राइट्स अवार्ड
1999- बीबीसी के व्यक्ति का वर्ष
1999- दीना नाथ मंगेशकर पुरस्कार
1990- शांति के लिए कुंडल लाल पुरस्कार
2013- भीमा बाई अम्बेडकर पुरस्कार

2014- सामाजिक न्याय के लिए मदर टेरेसा पुरस्कार

हैशटैग में खेला स्वच्छ भारत मिशन... यूपी की राजधानी में नहीं महिला शौचालय

पीएम नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत मिशन को काफी लाइमलाइट मिली. इस मिशन की ऑफिशियली शुरुआत 2 अक्टूबर  2014 को राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में की गई. पीएम के इस मिशन को सपोर्ट करने के लिए नेता से लेकर अभिनेता ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया. खिलाड़ी कुमार ने तो अपनी प्रेम कहानी ही टॉयलेट के नाम कर दी. स्वच्छता को लेकर ना जाने कितने प्रोग्राम हुए. 


कम्युनिकेशन के सभी माध्यमों पर ये मिशन छाया हुआ है. सोशल मीडिया पर तो तस्वीरों और वीडियो की बाड़ सी आ गई. जगह-जगह सफाई और शौचालयों के बारे में बातों के साथ काम भी होने लगा. लेकिन ये बात बेहद चौंकाने वाली है कि यूपी में सार्वजनिक महिला शौचालय नहीं है. लखनऊ की सार्वजनिक जगहों पर महिला शौचालय नहीं है.

इस मिशन की शुरुआत में करते हुए पीएम ने कहा था, एक स्वच्छ भारत के द्वारा ही देश 2019 में महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर अपनी सर्वोत्तम श्रद्धांजलि दे सकते हैं.  इस मिशन का मोटिव 2 अक्टूबर 2019 तक स्वच्छ भारतबनाना है.

स्वच्छता के महत्व को समझते हुए प्रधानमंत्री ने स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को हल करने की बात भी उठाई. आम से लेकर खास लोगों ने मोदी के सपने को साकार करने को तत्पर हैं.
सार्वजनिक जगहों पर महिला शौचालय ना होने की वजह से काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. पब्लिक टॉयलेट हैं भी तो वहां गंदगी के चलते जाना नामुमकिन सा हो जाता है. लड़कों के लिए किसी दीवार या पेड़ को पानी देना बड़ा ही आसान हैं. वहीं महिलाओं के लिए ऐसा करना संभव नहीं, लाज और शर्म के घूंघट के चलते कहीं जगह मिली तो ठीक नहीं तो पेशाब रोकने से जैसा खतरनाक काम आसान लगता है और घंटों पेशाब को रोक कर रखती हैं.

शायद उन्हें पता ही नहीं या पता होते हुए अपनी हेल्थ के साथ इतना बड़ा रिस्क लेना सहज लगता है. अधिक देर तक पेशाब रोकने की वजह से शरीर पर तो बुरा असर पड़ता है. इससे कई गंभीर बीमारियां भी हो सकती हैं. इसलिए इससे होने वाली प्रॉब्लम्स के बारे में एक बार जरूर जान लें.
 इंफेक्शन
जैसा कि सभी को मालूम है कि यूरिन के जरिए विषैले पदार्थ शरीर से बाहर आते हैं. पेशाब रोकने से ब्लैडर में विषैले पदार्थ इकट्ठे हो जाते हैं, जिससे यूरिनरी इंफेक्शन होने का खतरा रहता है.
ब्लैडर में सूजन
यूरिन रोकने की वजह से ब्लैडर में सूजन हो जाती है, जिससे पेशाब करते वक्त तेज दर्द होता है.
गुर्दे में पथरी
यूरिन में कई तरह के यूरिया और अमिनो एसिड जैसे विषैले पदार्थ होते हैं, जिनका शरीर से बाहर निकलना बहुत जरूरी है. ऐसे में जब हम यूरिन रोक कर रखते हैं तो ये विषैले पदार्थ किडनी के आस-पास इकट्ठे हो जाते हैं, जिससे गुर्दे में पत्थरी हो जाती है.
किडनी पर खतरा
शरीर से जब विषैले पदार्थ बाहर नहीं निकल पाते तो यह किडनी को नुकसान पहुंचाता है और इससे किडनी फेल होने का भी खतरा रहता है.


डुनिथ वेल्लालेज खेल की सच्ची भावना की मिसाल

एशिया कप 2025 जहां निगेटिविटी और विवादों में घिरा रहा। वहीं, 22 वर्षीय डुनिथ वेल्लालेज ने खेल की सच्ची भावना सबके सामने पेश की। एक ओर सभी को...